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दश्त में धूप की भी कमी है कहाँ | शाही शायरी
dasht mein dhup ki bhi kami hai kahan

ग़ज़ल

दश्त में धूप की भी कमी है कहाँ

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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दश्त में धूप की भी कमी है कहाँ
पाँव शल हैं मगर बेबसी है कहाँ

लम्स-ए-दश्त-ए-बला की ही सौग़ात है
मिरे अतराफ़ में बे-हिसी है कहाँ

ख़ाक में ख़ाक हूँ बे-मकाँ बे-निशाँ
मेरा मल्बूस तन ख़ुसरवी है कहाँ

मेरा सोज़-ए-दरूँ माइल-ए-लुत्फ़ हो
मुझ में शो'ला-फ़िशाँ वो नमी है कहाँ

फूँक दे बढ़ के जो तीरगी का बदन
मेरी आँखों में वो रौशनी है कहाँ

सौत-ओ-हर्फ़-ए-तमन्ना से हो बा-ख़बर
ऐसी इदराक में नग़्मगी है कहाँ