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दरवेश क़ैद-ए-ग़म में दिल-ए-ज़ार हो गया | शाही शायरी
darwesh qaid-e-gham mein dil-e-zar ho gaya

ग़ज़ल

दरवेश क़ैद-ए-ग़म में दिल-ए-ज़ार हो गया

मीर कल्लू अर्श

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दरवेश क़ैद-ए-ग़म में दिल-ए-ज़ार हो गया
आज़ाद हो गया जो गिरफ़्तार हो गया

यूसुफ़ भी लाख जाँ से ख़रीदार हो गया
तू घर में ग़ुल तिरा सर-ए-बाज़ार हो गया

रख़्ना तरीक़-ए-इश्क़ में डाला जो हिज्र ने
नासूर दिल का रौज़न-ए-दीवार हो गया

क़ातिल ने क़त्ल भी जो सुबुक जान कर किया
लाशा ब-रंग-ए-रूह सुबुक-बार हो गया

उगला जो ज़हर अफ़ई-ए-गेसू-ए-यार ने
हर मू-ए-मार-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह मार हो गया

सोया हैं वस्ल-ए-शौक़ में जागा वो नाज़ से
मैं बे-ख़बर हुआ वो ख़बर-दार हो गया

भागा गया न लाश पे ग़श खा के गिर पड़ा
क़ातिल ये मेरे ख़ूँ में गिरफ़्तार हो गया

इश्क़-ए-सनम गले का मिरे हार हो गया
गर्दन का तार रिश्ता-ए-ज़ुन्नार हो गया

पैग़ाम-ए-वस्ल ही में ख़फ़ा यार हो गया
इक़रार हो गया न कुछ इंकार हो गया

शाम-ओ-सहर चमकने जो दाग़-ए-जिगर लगा
ख़ुर्शीद-ए-रोज़-ओ-शम्-ए-शब-तार हो गया

कार-ए-रह-ए-खुदा न हुआ मौत आ गई
ग़फ़लत से बंदा दीदा-ए-बेदार हो गया

क़ातिल जो गुल खिलाने लगा शाख़-ए-तेग़ से
मक़्तल भी दम में तख़्ता-ए-गुलज़ार हो गया

खोदी जो नहर कोहकन-ए-जेब-ए-चाक ने
सौ जा से टुकड़े दामन-ए-कोहसार हो गया

याद-ए-बुताँ से काबा-ए-दिल बुत-कदा हुआ
तार-ए-नफ़स भी रिश्ता-ए-ज़ुन्नार हो गया

रोया तुलू-ए-मेहर-ए-तन-ए-ग़ौर पर जो 'अर्श'
आब-ए-रवाँ से जामा-ए-ज़रतार हो गया