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दरवाज़ा शहर-ए-गुल का हुआ वा तो क्या हुआ | शाही शायरी
darwaza shahr-e-gul ka hua wa to kya hua

ग़ज़ल

दरवाज़ा शहर-ए-गुल का हुआ वा तो क्या हुआ

महशर बदायुनी

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दरवाज़ा शहर-ए-गुल का हुआ वा तो क्या हुआ
ज़िंदाँ का दर है इस से ज़्यादा खुला हुआ

ख़स को हवा नसीब हुई और बना ख़दंग
इंसाँ को इख़्तियार मिला और ख़ुदा हुआ

तू ज़िंदगी के रुख़ पे तबस्सुम की एक रौ
मैं वक़्त की मिज़ा पे इक आँसू रुका हुआ

आसूदगी-ए-हाल का इम्कान इन दिनों
पैवंद है क़बा की शिकन में छुपा हुआ

किस ग़म को अब तअल्लुक़-ए-ख़ातिर का नाम दें
अब कोई ग़म नहीं है किसी से छुपा हुआ