दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
झोंका हवा का खिड़की के पर्दे हिला गया
वो जान-ए-नौ-बहार जिधर से गुज़र गया
पेड़ों ने फूल पत्तों से रस्ता छुपा लिया
उस के क़रीब जाने का अंजाम ये हुआ
मैं अपने-आप से भी बहुत दूर जा पड़ा
अंगड़ाई ले रही थी गुलिस्ताँ में जब बहार
हर फूल अपने रंग की आतिश में जल गया
काँटे से टूटते हैं मिरे अंग अंग में
रग रग में चाँद जलता हुआ ज़हर भर गया
आँखों ने उस को देखा नहीं इस के बावजूद
दिल उस की याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा
दरवाज़ा खटखटा के सितारे चले गए
ख़्वाबों की शाल ओढ़ के मैं ऊँघता रहा
शब चाँदनी की आँच में तप कर निखर गई
सूरज की जलती आग में दिन ख़ाक हो गया
सड़कें तमाम धूप से अँगारा हो गईं
अंधी हवाएँ चलती हैं इन पर बरहना-पा
वो आए थोड़ी देर रुके और चले गए
'आदिल' मैं सर झुकाए हुए चुप खड़ा रहा
ग़ज़ल
दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
आदिल मंसूरी