डरता हूँ मोहब्बत में मिरा नाम न होवे
दुनिया में इलाही कोई बदनाम न होवे
शमशीर कोई तेज़ सी लेना मिरे क़ातिल
ऐसी न लगाना कि मिरा काम न होवे
गर सुब्ह को मैं चाक गरेबान दिखाऊँ
ऐ ज़िंदा-दिलाँ हश्र तलक शाम न होवे
आता है मिरी ख़ाक पे हमराह-ए-रक़ीबाँ
यानी मुझे तुर्बत में भी आराम न होवे
जी देता है बोसे की तवक़्क़ो पे 'फ़ुग़ाँ' तू
टुक देख ले सौदा ये तिरा ख़ाम न होवे
ग़ज़ल
डरता हूँ मोहब्बत में मिरा नाम न होवे
अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ