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दरमियान-ए-जिस्म-ओ-जाँ है इक अजब सूरत की आड़ | शाही शायरी
darmiyan-e-jism-o-jaan hai ek ajab surat ki aaD

ग़ज़ल

दरमियान-ए-जिस्म-ओ-जाँ है इक अजब सूरत की आड़

साहिर देहल्वी

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दरमियान-ए-जिस्म-ओ-जाँ है इक अजब सूरत की आड़
मुझ को दिल की दिल को है मेरी अनानियत की आड़

आ गया तर्क-ए-ख़ुदी का गर कभी भूले से ध्यान
दिल ने पैदा की हर एक जानिब से हर सूरत की आड़

देते हैं दिल के एवज़ वो दर्द बहर-ए-इम्तिहाँ
लेते हैं नाम-ए-ख़ुदा अपनी तमानिय्यत की आड़

नफ़्स-परवर करते हैं बदनाम नाम-ए-मय-कशी
पर्दा-ए-पिंदार में लेते हैं कैफ़िय्यत की आड़

पर्दा-दारी चश्म-ए-ना-महरम से थी मद्द-ए-नज़र
दरमियाँ में डाल दी है नूर ने हैरत की आड़

दीदनी जो कुछ है जल्वा देख चश्म-ए-पाक में
नूर ने वहदत में रह कर ली है क्यूँ कसरत की आड़

जब निहान-ओ-आश्कारा जल्वा-ए-जानाना है
सब रिया-कारी है साहिर ख़ल्वत-ओ-जल्वत की आड़