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दरियाओं को हाल सुना कर रक़्स किया | शाही शायरी
dariyaon ko haal suna kar raqs kiya

ग़ज़ल

दरियाओं को हाल सुना कर रक़्स किया

मोहम्मद मुस्तहसन जामी

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दरियाओं को हाल सुना कर रक़्स किया
सहराओं की ख़ाक उड़ा कर रक़्स किया

क़ैस तुम्हारी सुन्नत ऐसे ज़िंदा की
हाथों में कश्कोल उठा कर रक़्स किया

क़ैस मुझे इस बात पे हैरत होती है
तू ने कैसे दश्त में जा कर रक़्स किया

उन लोगों की हालत देखने वाली थी
जिन लोगों ने वज्द में आ कर रक़्स किया

जब मेरी आवाज़ न कानों तक पहुँची
फिर मैं ने तहरीर में आ कर रक़्स किया

नीली छत पे ला-महदूद परिंदे थे
आज किसी ने अश्क बहा कर रक़्स किया

भेद खुला जिस शख़्स पे तेरे होने का
उस ने तेरे क़ुर्ब को पा कर रक़्स किया

छन छना छन छन छन छन की आई सदा
घुंघरू पहने होश गँवा कर रक़्स किया

'मुस्तहसन' मैं 'जामी' हूँ 'मंसूर' नहीं
दिलबर को अशआ'र सुना कर रक़्स किया