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दर से मायूस तिरे तालिब-ए-इकराम चले | शाही शायरी
dar se mayus tere talib-e-ikram chale

ग़ज़ल

दर से मायूस तिरे तालिब-ए-इकराम चले

शातिर हकीमी

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दर से मायूस तिरे तालिब-ए-इकराम चले
कैसी उम्मीद लिए आए थे नाकाम चले

ओ मिरी बज़्म-ए-तमन्ना के सजाने वाले
लुत्फ़ कर लुत्फ़ कि दुनिया में तिरा नाम चले

छीन ले चर्ख़-ए-सितमगार से अंदाज़-ए-ख़िराम
कुछ अगर ज़ोर तिरा गर्दिश-ए-अय्याम चले

एक वो हैं कि तिरा लुत्फ़-ओ-करम है जिन पर
एक हम हैं कि तिरी बज़्म से नाकाम चले

अज़्म-ए-रासिख़ ने भी घबरा के क़दम तोड़ दिए
कूचा-ए-यार में हम यूँ सहर-ओ-शाम चले

मस्त आँखों का अगर एक इशारा हो जाए
वज्द में आए सुबू और कहीं जाम चले

नींद बीमार-ए-मोहब्बत को कहीं आती है
सुब्ह ता-शाम अगर बाद-ए-सुबुक-गाम चले

रह-रव-ए-इश्क़ हैं मंज़िल की हमें क्या उम्मीद
क्या चले ख़ाक अगर बैठ के दो-गाम चले

कौन जाए हदफ़-ए-तीर-ए-नज़र होने को
सब्र से काम अगर ऐ दिल-ए-नाकाम चले

हैफ़ सद हैफ़ थी उम्मीद-ए-रिफ़ाक़त जिन से
आज वो भी मिरे सर थोप के इल्ज़ाम चले

एक 'शातिर' के न होने से बिगड़ता क्या है
तेरी महफ़िल रहे आबाद तिरा नाम चले