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दम-ए-विसाल ये हसरत रही रही न रही | शाही शायरी
dam-e-visal ye hasrat rahi rahi na rahi

ग़ज़ल

दम-ए-विसाल ये हसरत रही रही न रही

वजीह सानी

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दम-ए-विसाल ये हसरत रही रही न रही
जमाल-ए-यार की हैरत रही रही न रही

उसे ये नाज़ था ख़ुद पर कि ज़िंदगी है मिरी
सो ज़िंदगी की हक़ीक़त रही रही न रही

कमाल कर के दिखाया है मेरी आँखों ने
अब इन में पहली सी वहशत रही रही न रही

लगा हुआ है ज़माना इसी तजस्सुस में
वो मेरे पहलू की ज़ीनत रही रही न रही

कोई भी रब्त मगर दाइमी नहीं होता
किसी के हक़ में तबीअ'त रही रही न रही

हज़ारों यार हज़ारों ही चाहने वाले
मगर नसीब में ख़ल्वत रही रही न रही

है कैसा ज़ोर का तूफ़ाँ बचें बचें न बचें
रही रही न रही छत रही रही न रही

यूँ अपने जज़्ब में गुम हो गया है अब 'सानी'
शराब-ओ-मय की ज़रूरत रही रही न रही