दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती
वो इक ऐसी हक़ीक़त है जो पहचानी नहीं जाती
इसे तो राह में अरबाब-ए-हिम्मत छोड़ देते हैं
किसी के साथ मंज़िल तक तन-आसानी नहीं जाती
किसे मिलती हैं वो आँखें मोहब्बत में जो रोती हैं
मुबारक हैं वो आँसू जिन की अर्ज़ानी नहीं जाती
उभरता ही नहीं दिल डूब कर बहर-ए-मोहब्बत में
जब आ जाती है इस दरिया में तुग़्यानी नहीं जाती
गदाई में भी मुझ पर शान-ए-इस्तिग़ना बरसती है
मिरे सर से हवा-ए-ताज-ए-सुल्तानी नहीं जाती
मुक़ीम-ए-दिल हैं वो अरमान जो पूरे नहीं होते
ये वो आबाद घर है जिस की वीरानी नहीं जाती
कुछ ऐसा परतव-ए-हुस्न-ए-अज़ल ने कर दिया रौशन
क़यामत तक तो अब ज़र्रों की ताबानी नहीं जाती
कुछ ऐसे बरगुज़ीदा लोग भी हैं जिन के हाथों से
छुड़ा कर अपना दामन पाक-दामनी नहीं जाती
हुजूम-ए-यास में भी ज़िंदगी पर मुस्कुराता हूँ
मुसीबत में भी मेरी ख़ंदा-पेशानी नहीं जाती
ग़ज़ल
दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती
मख़मूर देहलवी