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दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती | शाही शायरी
dalael se KHuda tak aql-e-insani nahin jati

ग़ज़ल

दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती

मख़मूर देहलवी

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दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती
वो इक ऐसी हक़ीक़त है जो पहचानी नहीं जाती

इसे तो राह में अरबाब-ए-हिम्मत छोड़ देते हैं
किसी के साथ मंज़िल तक तन-आसानी नहीं जाती

किसे मिलती हैं वो आँखें मोहब्बत में जो रोती हैं
मुबारक हैं वो आँसू जिन की अर्ज़ानी नहीं जाती

उभरता ही नहीं दिल डूब कर बहर-ए-मोहब्बत में
जब आ जाती है इस दरिया में तुग़्यानी नहीं जाती

गदाई में भी मुझ पर शान-ए-इस्तिग़ना बरसती है
मिरे सर से हवा-ए-ताज-ए-सुल्तानी नहीं जाती

मुक़ीम-ए-दिल हैं वो अरमान जो पूरे नहीं होते
ये वो आबाद घर है जिस की वीरानी नहीं जाती

कुछ ऐसा परतव-ए-हुस्न-ए-अज़ल ने कर दिया रौशन
क़यामत तक तो अब ज़र्रों की ताबानी नहीं जाती

कुछ ऐसे बरगुज़ीदा लोग भी हैं जिन के हाथों से
छुड़ा कर अपना दामन पाक-दामनी नहीं जाती

हुजूम-ए-यास में भी ज़िंदगी पर मुस्कुराता हूँ
मुसीबत में भी मेरी ख़ंदा-पेशानी नहीं जाती