दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर
मय-कदा भी ख़ुदा ही के घर सा लगे
चाँद तारों की जो दे रहा है ख़बर
देखने में तो वो बे-ख़बर सा लगे
गुमरही में भी दीवाना-ए-दिल-फ़िगार
मंज़िल-ए-होश का राहबर सा लगे
ये जहाँ रश्क-ए-जन्नत है किस के लिए
और किसी को यही दर्द-ए-सर सा लगे
झील में अध-खिले फूल पर चाँदनी
हम को मंज़र ये तेरी नज़र सा लगे
शम-ए-बज़्म-ए-अदब था वो कल तक मगर
आज 'लाग़र' चराग़-ए-सहर सा लगे

ग़ज़ल
दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर
ओम प्रकाश लाग़र