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दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर | शाही शायरी
dair-o-kaba ki azmat musallam magar

ग़ज़ल

दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर

ओम प्रकाश लाग़र

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दैर-ओ-काबा की अज़्मत मुसल्लम मगर
मय-कदा भी ख़ुदा ही के घर सा लगे

चाँद तारों की जो दे रहा है ख़बर
देखने में तो वो बे-ख़बर सा लगे

गुमरही में भी दीवाना-ए-दिल-फ़िगार
मंज़िल-ए-होश का राहबर सा लगे

ये जहाँ रश्क-ए-जन्नत है किस के लिए
और किसी को यही दर्द-ए-सर सा लगे

झील में अध-खिले फूल पर चाँदनी
हम को मंज़र ये तेरी नज़र सा लगे

शम-ए-बज़्म-ए-अदब था वो कल तक मगर
आज 'लाग़र' चराग़-ए-सहर सा लगे