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दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में | शाही शायरी
dair-o-haram ko chhoD ke ai dil chal baiTho maiKHane mein

ग़ज़ल

दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में
ख़ूब गुज़र जाएगी अपनी साक़ी से याराने में

सैर तबीअ'त हो जाएगी नशा जो है होवेगा वही
फ़र्क़ नहीं है साक़ी हरगिज़ चुल्लू में पैमाने में

रूह है जब तक जिस्म के अंदर जिस्म पे मेरे रौनक़ है
काशाना आबाद है जब तक बुलबुल है काशाने में

दस्त-ए-तमन्ना क़त्अ हुआ बरबाद हुई है हिर्स-ओ-हवा
ज़ीस्त की सूरत अपनी बंधी ऐ नफ़्स तिरे मर जाने में

सच है दिल को अपने भी जुज़ याद सनम कुछ ध्यान नहीं
देख तो ऐ नासेह कैसी हुश्यारी है दीवाने में

फ़िक्र-ए-दुनिया से हैं छुटे इस रंज-ए-जहाँ से पाई नजात
लाख तरह की राहत पाई इक अपने मर जाने में

पेश-ए-जुनून-ए-बख़्ता ऐ दिल मौत तो ज़ीस्त से ख़ुश-तर है
शम्अ' के आगे रक़्स-कुनाँ था परवाना जल जाने में

हुस्न-ए-नैरंग उस मह-रू का दिल-ए-हज़ीं में रहता है
चश्म-ए-बीना हो तो देखे बस्ती है वीराने में

नक़्श-ए-मोहब्बत कहीं न पाया लौह-ए-दिल पर इंसाँ के
फिरा क़लम की सूरत से मैं बरसों इक इक ख़ाने में