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दैर-ओ-हरम हैं मंज़र-ए-आईन-ए-इख़तिलाफ़ | शाही शायरी
dair-o-haram hain manzar-e-ain-e-iKHtilaf

ग़ज़ल

दैर-ओ-हरम हैं मंज़र-ए-आईन-ए-इख़तिलाफ़

साहिर देहल्वी

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दैर-ओ-हरम हैं मंज़र-ए-आईन-ए-इख़तिलाफ़
हक़ पर सदा नज़र है मिरी हीन-ए-इख़्तिलाफ़

बैरून-ए-दर हैं सूरत-ओ-मा'नी के पर्दा-दार
हैं पर्दा-ए-ख़िफ़ा में क़वानीन-ए-इख़तिलाफ़

है बरक़रार गर्दिश-ए-दौरान-ए-रोज़गार
नैरंगी-ए-ख़याल है आईन-ए-इख़्तिलाफ़

मम्नून-ए-रास्ती है हर इक नुक़्ता-ए-नज़र
मद्द-ए-नज़र जहाँ में है तमकीन-ए-इख़तिलाफ़

क्या पारा-हा-ए-पैरहन-ए-उन्स बख़िया हों
जब हों उधेड़-बुन में मजानीन-ए-इख़्तिलाफ़

लाज़िम हमें है क़त-ए-नज़र मदह-ओ-ज़म से अब
तहसीन-ए-इत्तिफ़ाक़ है नफ़रीन-ए-इख़्तिलाफ़

दिलदारियाँ कहाँ हैं वो 'साहिर' कभी जो थीं
ख़ातिर-शिकन हैं अब तो मज़ामीन-ए-इख़्तिलाफ़