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दैर-ओ-हरम भी आए कई इस सफ़र के बीच | शाही शायरी
dair-o-haram bhi aae kai is safar ke bich

ग़ज़ल

दैर-ओ-हरम भी आए कई इस सफ़र के बीच

अाशा प्रभात

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दैर-ओ-हरम भी आए कई इस सफ़र के बीच
मेरी जबीन-ए-शौक़ तिरे संग-ए-दर के बीच

कुछ लज़्ज़त-ए-गुनाह भी है कुछ ख़ुदा का ख़ौफ़
इंसान जी रहा है इसी ख़ैर-ओ-शर के बीच

ये ख़्वाहिश-ए-विसाल है या हिज्र का सुलूक
चुटकी सी ली है दर्द ने आ कर जिगर के बीच

बिछड़े तो ये मलाल की सौग़ात भी मिली
ताकीद थी ख़याल न आए सफ़र के बीच

ख़ुशबू की तरह लफ़्ज़ थे मअ'नी ब-क़ैद-ए-रंग
ये मरहले भी आए हैं अर्ज़-ए-हुनर के बीच

दुल्हन बनी थी 'आशा' वो शब याद है मुझे
गुम थे मिरे हवास हुजूम-ए-नज़र के बीच