दास्ताँ भी मुख़्तलिफ़ लहजा भी यारों से जुदा
पाँचवाँ दरवेश तो है पहले चारों से जुदा
ज़हर ना-पुख़्ता मिज़ाजों में भरा करते हैं ये
आप रहिएगा ज़रा इन होशयारों से जुदा
शोर बरपा हो गया हर गोशा-ए-गुलज़ार में
जब उभर आया नया मंज़र बहारों से जुदा
चाट जाती हिर्स की दीमक फ़क़ीरों के भी तन
सीरतें उन की थीं लेकिन शहरयारों से जुदा
बस ग़म-ए-जानाँ नहीं लेकिन ग़म-ए-दुनिया तो है
आप कैसे हो गए फिर दिल-फ़िगारों से जुदा
'नासिर' ओ 'बानी' सा तुझ को भी सराहा जाएगा
जब तिरा रंग-ए-सुख़न होगा हज़ारों से जुदा
ग़ज़ल
दास्ताँ भी मुख़्तलिफ़ लहजा भी यारों से जुदा
आरिफ़ अंसारी