दामन-ए-ज़ब्त को अश्कों में भिगो लेता हूँ
दर्द जब हद से गुज़रता है तो रो लेता हूँ
आँख लगती ही नहीं नींद कहाँ से आए
नींद आती नहीं कहने को तो सो लेता हूँ
जब नहीं मिलता अनीस-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त कोई
रख के तस्वीर तिरी सामने रो लेता हूँ
अब तिरी याद ही तसकीन-ए-दिल-ओ-जां है मुझे
अब तिरे दर्द के बिस्तर पे भी सो लेता हूँ
जब भी मिल जाती है फ़ुर्सत ग़म-ए-दुनिया से 'शकेब'
याद कर के उन्हें तन्हाई में रो लेता हूँ
ग़ज़ल
दामन-ए-ज़ब्त को अश्कों में भिगो लेता हूँ
शकेब बनारसी