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दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया | शाही शायरी
dagh-e-junun dimagh-e-pareshan mein rah gaya

ग़ज़ल

दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया

वज़ीर अली सबा लखनवी

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दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया
दामन में ख़ार चाक गरेबाँ में रह गया

जब दो क़दम जुनूँ में मिरा साथ हो गया
फैला के पाँव क़ैस बयाबाँ में रह गया

अबरू-ए-यार से जो बहुत मुन्फ़इल हुआ
मुँह डाल कर हिलाल गरेबाँ में रह गया

तक़लीद बन पड़ी न तुम्हारी ख़िराम की
ताऊस लड़खड़ा के गुलिस्ताँ में रह गया

आई बहार और न छूटा मैं ऐ जुनूँ
कैसा तड़प के ख़ाना-ए-ज़िंदाँ में रह गया

तूदा क़ज़ा ने नावक-ए-जल्लाद का किया
मैं ढेर हो के गंज-ए-शहीदाँ में रह गया

क्या हादिसा पड़ा मिरे यूसुफ़ पर ऐ 'सबा'
दिल गिर के उन की चाह-ए-ज़नख़दाँ में रह गया