EN اردو
दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ | शाही शायरी
dagh-e-dil apna jab dikhata hun

ग़ज़ल

दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ

ताबाँ अब्दुल हई

;

दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ
रश्क से शम्अ को जलाता हूँ

वो मिरा शोख़ है निपट चंचल
भाग जाता है जब बुलाता हूँ

उस परी-रू को देखता हूँ जब
हो के दीवाना सुध भुलाता हूँ

मुझ को देता है गालियाँ उठ कर
नींद से जब उसे जगाता हूँ

जब मुझे घेरता है ग़म 'ताबाँ'
साग़र-ए-मय को भर पिलाता हूँ