चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
बोलती है तो बदल जाती है रंगत उस की
सीढ़ियाँ चढ़ते अचानक वो मिली थी मुझ को
उस की आवाज़ में मौजूद थी हैरत उस की
हाथ छू लूँ तो लरज़ जाती है पत्ते की तरह
वही ना-कर्दा-गुनाही पे नदामत उस की
किसी ठहरी हुई साअत की तरह मोहर-ब-लब
मुझ से देखी नहीं जाती ये अज़िय्यत उस की
आँख रखते हो तो उस आँख की तहरीर पढ़ो
मुँह से इक़रार न करना तो है आदत उस की
ख़ुद वो आग़ोश-ए-कुशादा है जज़ीरे की तरह
फैले दरियाओं की मानिंद मोहब्बत उस की
रौशनी रूह की आती है मगर छन छन कर
सुस्त-रौ अब्र का टुकड़ा है तबीअत उस की
है अभी लम्स का एहसास मिरे होंटों पर
सब्त फैली हुई हुई बाहोँ पे हरारत उस की
वो अगर जा भी चुकी है तो न आँखें खोलो
अभी महसूस किए जाओ रिफ़ाक़त उस की
दिल धड़कता है तो वो आँख बुलाती है मुझे
साँस आती है तो मिलती है बशारत उस की
वो कभी आँख भी झपके तो लरज़ जाता हूँ
मुझ को उस से भी ज़्यादा है ज़रूरत उस की
वो कहीं जान न ले रेत का टीला हूँ मैं
मेरे काँधों पे है तामीर इमारत उस की
बे-तलब जीना भी 'शहज़ाद' तलब है उस की
ज़िंदा रहने की तमन्ना भी शरारत उस की
ग़ज़ल
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
शहज़ाद अहमद