चुप है वो मोहर-ब-लब मैं भी रहूँ अच्छा है
हल्का हल्का ये मोहब्बत का फ़ुसूँ अच्छा है
मौसम-ए-गुल न सही शग़्ल-ए-जुनूँ अच्छा है
हमदमो! तेज़ रहे गर्दिश-ए-ख़ूँ, अच्छा है
तुम भी करते रहे तल्क़ीन सकूँ की ख़ातिर
मैं भी आवारा ओ सर-गश्ता रहूँ अच्छा है
वो भी किया ख़ून कि हो जब्र की बुनियाद में जज़्ब
जो यूँही मुफ़्त में बह जाए वो ख़ूँ अच्छा है
बात वो आई है लब पर कि कहे बिन न रहूँ
अक़्ल जामे से हो बाहर तो जुनूँ अच्छा है
गर भटकने ही की ठानी है रफ़ीक़ों ने तो ख़ैर
मुँह से कुछ कह न सकूँ साथ तो दूँ अच्छा है
दिल का अहवाल कि कुछ ज़िक्र-ए-ज़माना छेड़ूँ
बात यूँ छेड़ना अच्छा है कि यूँ अच्छा है
मैं ने क्या क्या न कहा शेर में उन से 'हक़्क़ी'
वो फ़क़त सुन के ये कहते रहे हूँ अच्छा है
ग़ज़ल
चुप है वो मोहर-ब-लब मैं भी रहूँ अच्छा है
शानुल हक़ हक़्क़ी