छुप कर न रह सके निगह-ए-अहल-ए-फ़न से हम
महफ़िल में झाँकते हैं नक़ाब-ए-सुख़न से हम
कम-बख़्त ढूँढती है मोहब्बत में फ़ल्सफ़ा
तंग आ गए हैं अक़्ल के दीवाना-पन से हम
तलख़ी-ए-ज़िंदगी में भी पाने लगे मिठास
आजिज़ हैं अपनी फ़ितरत-ए-काम-ओ-दहन से हम
पैदा किया हुआ है हमारा ही सब फ़रोग़
बेगाना कुछ नहीं हैं तिरी अंजुमन से हम
ऐ महव-ए-नाज़ और नया कोई इम्तिहाँ
उकता गए हैं बाज़ी-ए-दार-ओ-रसन से हम
इक ज़र्रा ही सही मगर ऐ आफ़्ताब-ए-नाज़
सज्दे करा रहे हैं तिरी हर किरन से हम
देते रहे फ़रेब-ए-मनाज़िर के बुत-कदे
देखा किए तुझे निगह-ए-बुत-शिकन से हम
उठना हमारा था कि सभों की नज़र उठी
कुछ जैसे ले चलूँ हूँ तिरी अंजुमन से हम
उभरा नहीं है सादगी-ए-गिर्या का मज़ाक़
महफ़िल ये चाहती है कि रोएँ भी फ़न से हम
ग़ज़ल
छुप कर न रह सके निगह-ए-अहल-ए-फ़न से हम
परवेज़ शाहिदी