छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम
अब कितनी एहतियात से चलने लगे हैं हम
इस दर्जा होशियार तो पहले कभी न थे
अब क्यूँ क़दम क़दम पे सँभलने लगे हैं हम
हो जाते हैं उदास कि जब दोपहर के ब'अद
सूरज पुकारता है कि ढलने लगे हैं हम
ऐसा नहीं कि बर्फ़ की मानिंद हों मगर
लगता है यूँ कि जैसे पिघलने लगे हैं हम
आईना देखने की ज़रूरत न थी कोई
ख़ुद जानते थे हम कि बदलने लगे हैं हम
इस का यक़ीन आज भला किस को आएगा
इक धीमी धीमी आँच में जलने लगे हैं हम
सच पूछिए तो इस की हमें ख़ुद ख़बर नहीं
मौसम बदल गया कि बदलने लगे हैं हम
ग़ज़ल
छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम
वाली आसी