छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
मिट्टी में हम जैसे मिले हैं कम कोई ख़ाक हुआ होगा
उल्टे सीधे गिरते-पड़ते चल पड़ते हैं इस लिए हम
मंज़िल पर ले जाने वाला कोई तो नक़्श-ए-पा होगा
इतनी सज-धज से जो चले थे क़ाफ़िले वो हैं ठहर गए
होगा हवा-ए-सहरा जैसा आगे जो भी गया होगा
कुछ होने से अन-होने से फ़र्क़ तो पड़ने वाला नहीं
हो नहीं पाया अब तक कुछ भी होगा भी तो क्या होगा
मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
हम जैसा बे-बस होगा हम जैसा तन्हा होगा
ग़ज़ल
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
साबिर ज़फ़र