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छा गया सर पे मिरे गर्द का धुँदला बादल | शाही शायरी
chha gaya sar pe mere gard ka dhundla baadal

ग़ज़ल

छा गया सर पे मिरे गर्द का धुँदला बादल

नश्तर ख़ानक़ाही

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छा गया सर पे मिरे गर्द का धुँदला बादल
अब के सावन भी गया मुझ पे न बरसा बादल

सीप बुझते हुए सूरज की तरफ़ देखते हैं
कैसी बरसात मिरी जान कहाँ का बादल

वो भी दिन थे कि टपकता था छतों से पहरों
अब के पल भर भी मुंडेरों पे न ठहरा बादल

फ़र्श पर गिर के बिखरता रहा पारे की तरह
सब्ज़ बाग़ों में मिरे बा'द न झूला बादल

लाख चाहा न मिली प्यार की प्यासी आग़ोश
घर की दीवार से सर फोड़ के रोया बादल

आज की शब भी जहन्नम में सुलगते ही कटी
आज की शब भी तो बोतल से न छलका बादल