चश्म-ए-नम पर मुस्कुरा कर चल दिए
आग पानी में लगा कर चल दिए
सारी महफ़िल लड़खड़ाती रह गई
मस्त आँखों से पिला कर चल दिए
गर्द-ए-मंज़िल आज तक है बे-क़रार
इक क़यामत ही उठा कर चल दिए
मेरी उम्मीदों की दुनिया हिल गई
नाज़ से दामन बचा कर चल दिए
मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से देखा किए
सब की नज़रें आज़मा कर चल दिए
गुलसिताँ में आप आए भी तो क्या
चंद कलियों को हँसा कर चल दिए
वज्द में आ कर हवाएँ रह गईं
ज़ेर-ए-लब कुछ गुनगुना कर चल दिए
वो फ़ज़ा वो चौदहवीं की चाँदनी
हुस्न की शबनम गिरा कर चल दिए
वो तबस्सुम वो अदाएँ वो निगाह
सब को दीवाना बना कर चल दिए
कुछ ख़बर उन की भी है 'माहिर' तुम्हें
आप तो ग़ज़लें सुना कर चल दिए
ग़ज़ल
चश्म-ए-नम पर मुस्कुरा कर चल दिए
माहिर-उल क़ादरी