चश्म-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्त-ए-क़ुदरत को बे-असर कर दे
तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे
जोश-ए-वहशत है तिश्ना-काम अभी
चाक-ए-दामन को ता जिगर कर दे
मेरी क़िस्मत से खेलने वाले
मुझ को क़िस्मत से बे-ख़बर कर दे
लुट रही है मिरी मता-ए-नियाज़
काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे
'फ़ैज़' तकमील-ए-आरज़ू मालूम
हो सके तो यूँही बसर कर दे
ग़ज़ल
चश्म-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़