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चश्म-ए-ख़ूँबार में क्यूँ लख़्त-ए-जिगर जम'अ करें | शाही शायरी
chashm-e-KHunbar mein kyun laKHt-e-jigar jama karen

ग़ज़ल

चश्म-ए-ख़ूँबार में क्यूँ लख़्त-ए-जिगर जम'अ करें

किशन कुमार वक़ार

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चश्म-ए-ख़ूँबार में क्यूँ लख़्त-ए-जिगर जम'अ करें
ग़ुंचा-ए-गुल की तरह का है को ज़र जम'अ करें

क़त्ल के बा'द हुआ हुक्म कि लाशें उठ जाएँ
क़ैद-ए-तफ़रीक़ से मक़्तूलों के सर जम'अ करें

यार ने ख़त्त-ओ-कबूतर के किए हैं टुकड़े
पुर्ज़े काग़ज़ के करें जम'अ कि पर जम'अ करें

फ़िक्र में गेसू-ओ-रुख़सार के दिल की ख़ातिर
शाम होती है परेशाँ जो सहर जम'अ करें

हम रहे दहर में जब तक तू रहे पा-ब-रिकाब
पर न ये हो सका असबाब-ए-सफ़र जम'अ करें

दोनों आलम से न क्यूँ बंद वो आँखें रक्खें
तेरे नज़्ज़ारे के ख़ातिर जो नज़र जम'अ करें

यक क़लम पंज सद-ओ-चार हों दीवाँ में ग़ज़ल
हम कलाम अपना 'वक़ार' आज अगर जम'अ करें