चश्म-ए-खूँ-ख़्वार अबरू-ए-ख़मदार दोनों एक हैं
हैं जुदा लेकिन ब-वक़्त-ए-कार दोनों एक हैं
बाइस-ए-आराम ये ने मोजिब-ए-आज़ार वो
चश्म-ए-वहदत में ही गुल और ख़ार दोनों एक हैं
इल्तियाम-ए-ज़ख़्म-ए-दिल के हक़ में गर कीजे निगाह
सब्ज़ा-ए-ख़त मरहम-ए-ज़ंगार दोनों एक हैं
हालत इस्तिग़्ना की जिस के हाथ आई है यहाँ
उस के नज़दीक अंदक ओ बिसयार दोनों एक हैं
मेरे उस के गो जुदाई आ गई है दरमियाँ
जिस घड़ी बाहम हुए दो-चार दोनों एक हैं
जो न माने उस को आशिक़ हो के उस पे देख ले
अबरू-ए-ख़मदार और तलवार दोनों एक हैं
क्या कहूँ मैं इस को आँखों ने दिए हैं जो फ़रेब
फ़न्न-ए-मक्कारी में ये मक्कार दोनों एक हैं
जो है काबा वो ही बुत-ख़ाना है शैख़ ओ बरहमन
इस की नाहक़ करते हो तकरार दोनों एक हैं
ये नहीं कहने का 'जोशिश' होगा जो साहिब-ए-दिमाग़
ज़ुल्फ़-ए-यार ओ नाफ़ा-ए-तातार दोनों एक हैं
ग़ज़ल
चश्म-ए-खूँ-ख़्वार अबरू-ए-ख़मदार दोनों एक हैं
जोशिश अज़ीमाबादी