चश्म-ए-हैराँ को यूँ ही महव-ए-नज़र छोड़ गए
दिल में लहराए ख़यालों में शरर छोड़ गए
जिन के साए में कभी बैठ के सुस्ताया था
वो घने पेड़ मिरी राह-गुज़र छोड़ गए
मुंतज़िर उन के लिए है किसी गिर्दाब की आँख
ख़ुद सफ़ीनों को जो हंगाम-ए-ख़तर छोड़ गए
क़ाफ़िले नूर के उतरे न किसी मंज़िल पर
शब के नम-दीदा किनारों पे सहर छोड़ गए
ख़ीरगी है कि उतरती ही नहीं आँखों से
किन अँधेरों में हमें शम्स-ओ-क़मर छोड़ गए
ले गए लोग जबीनों में इबादत का ग़ुरूर
कितने सज्दों को मगर ख़ाक-बसर छोड़ गए
आए आँखों में न दम भर को सुलगते आँसू
पर्दा-ए-चश्म पे इक नक़्श मगर छोड़ गए
रात के अक्स जो शबनम में उतरने आए
कितने फूलों में 'समद' दाग़-ए-जिगर छोड़ गए

ग़ज़ल
चश्म-ए-हैराँ को यूँ ही महव-ए-नज़र छोड़ गए
समद अंसारी