चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे
चमन में आएगी फ़स्ल-ए-बहाराँ हम नहीं होंगे
जवानो अब तुम्हारे हाथ में तक़्दीर-ए-आलम है
तुम्हीं होगे फ़रोग़-ए-बज़्म-ए-इम्काँ हम नहीं होंगे
जिएँगे जो वो देखेंगे बहारें ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की
सँवारे जाएँगे गेसु-ए-दौरान हम नहीं होंगे
हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे
जबीन-ए-दहर पर छटकेगी अफ़्शाँ हम नहीं होंगे
न था अपनी ही क़िस्मत में तुलू-ए-मेहर का जल्वा
सहर हो जाएगी शाम-ए-ग़रीबाँ हम नहीं होंगे
अगर माज़ी मुनव्वर था कभी तो हम न थे हाज़िर
जो मुस्तक़बिल कभी होगा दरख़्शाँ हम नहीं होंगे
हमारे दौर में डालीं ख़िरद ने उलझनें लाखों
जुनूँ की मुश्किलें जब होंगी आसाँ हम नहीं होंगे
कहीं हम को दिखा दो इक किरन ही टिमटिमाती सी
कि जिस दिन जगमगाएगा शबिस्ताँ हम नहीं होंगे
हमारे बाद ही ख़ून-ए-शहीदाँ रंग लाएगा
यही सुर्ख़ी बनेगी ज़ेब-ए-उनवाँ हम नहीं होंगे
ग़ज़ल
चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे
अब्दुल मजीद सालिक