चराग़-ए-याद की लौ हम-सफ़र कहाँ तक है
ये रौशनी मिरी दहलीज़ पर कहाँ तक है
बस एक तुम थे कि जो दिल का हाल जानते थे
सो अब तुम्हें भी हमारी ख़बर कहाँ तक है
मुसाफ़िरान-ए-जुनूँ गर्द हो गए लेकिन
खुला नहीं कि तिरी रहगुज़र कहाँ तक है
हर एक लम्हा बदलती हुई कहानी में
हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल मो'तबर कहाँ तक है
ज़मीं की आख़िरी हद पर पहुँच के सोचता हूँ
यहाँ से मौसम-ए-दीवार-ओ-दर कहाँ तक है
बिछड़ने वालों को अंदाज़ा ही नहीं होता
तू हम-सफ़र है मगर हम-सफ़र कहाँ तक है
अजीब लोग हैं आज़ादियों के मारे हुए
क़फ़स में पूछते फिरते हैं घर कहाँ तक है
ग़ज़ल
चराग़-ए-याद की लौ हम-सफ़र कहाँ तक है
सलीम कौसर