चलती रहती है तसलसुल से जुनूँ-ख़ेज़ हवा
जलता रहता है मगर फिर भी कहीं एक दिया
किसी महफ़िल में कोई शख़्स बहुत खुल के हँसा
वाक़िआ ये तो अजब आज यहाँ पेश आया
याद आता है बहुत एक पुराना आँगन
जिस में पीपल का घना पेड़ हुआ करता था
अश्क बहते हैं तो बहते ही चले जाते हैं
रोक सकता है बहाव भी कोई दरिया का
रात हम एक ग़ज़ल लिखते हुए रोते रहे
बाज़ लफ़्ज़ों को तो अश्कों ने मिटा ही डाला
फिर से टकरा गया मुझ ही से मिरे दिल का मफ़ाद
फिर से बरपा हुआ इक मारका-ए-कर्ब-ओ-बला
ग़ज़ल
चलती रहती है तसलसुल से जुनूँ-ख़ेज़ हवा
शबनम शकील