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चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा | शाही शायरी
chalti rahi us kuche mein talwar hamesha

ग़ज़ल

चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा

रिन्द लखनवी

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चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
लाशे ही निकलते रहे दो-चार हमेशा

गिल खुलते रहें चहचहे करता रहे बुलबुल
या-रब रहे आबाद ये गुलज़ार हमेशा

हम रिंद हुए शाहिद-ए-मक़्सूद से वासिल
झगड़े में रहे काफ़िर ओ दीं-दार हमेशा

याँ तुख़्म-ए-तमन्ना से उगा करता है लाला
गुल खाते हैं हर फ़स्ल में दो-चार हमेशा

तड़पा करें कूचे में तिरे सैकड़ों कुश्ते
रंगीं रहे ख़ूँ से तिरी तलवार हमेशा

दीवाने हैं माइल हों अगर हूर-ओ-परी के
जो देख रहे हूँ तिरा दीदार हमेशा

मुझ तिश्ना-ए-दीदार को किस रोज़ छकाया
प्यासा ही रहा ख़ूँ का वो खूँ-ख़्वार हमेशा

मुश्ताक़ों ने तेरे न लिया कौड़ियों के मोल
बिकता रहा यूसुफ़ सर-ए-बाज़ार हमेशा

है ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल तिरी या दाम-ए-बला है
हो रहते हैं दो-चार गिरफ़्तार हमेशा

क्यूँ-कर तू मसीहा हुआ मशहूर जहाँ में
मरते हैं तिरे हाथ से बीमार हमेशा

हंगामे नए रोज़ हुआ करते हैं बरपा
फ़ित्ने ही उठाती है वो रफ़्तार हमेशा

ऐ 'रिन्द' जुनूँ में भी न सहरा को गए हम
खाया किए पत्थर सर-ए-बाज़ार हमेशा