चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
लाशे ही निकलते रहे दो-चार हमेशा
गिल खुलते रहें चहचहे करता रहे बुलबुल
या-रब रहे आबाद ये गुलज़ार हमेशा
हम रिंद हुए शाहिद-ए-मक़्सूद से वासिल
झगड़े में रहे काफ़िर ओ दीं-दार हमेशा
याँ तुख़्म-ए-तमन्ना से उगा करता है लाला
गुल खाते हैं हर फ़स्ल में दो-चार हमेशा
तड़पा करें कूचे में तिरे सैकड़ों कुश्ते
रंगीं रहे ख़ूँ से तिरी तलवार हमेशा
दीवाने हैं माइल हों अगर हूर-ओ-परी के
जो देख रहे हूँ तिरा दीदार हमेशा
मुझ तिश्ना-ए-दीदार को किस रोज़ छकाया
प्यासा ही रहा ख़ूँ का वो खूँ-ख़्वार हमेशा
मुश्ताक़ों ने तेरे न लिया कौड़ियों के मोल
बिकता रहा यूसुफ़ सर-ए-बाज़ार हमेशा
है ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल तिरी या दाम-ए-बला है
हो रहते हैं दो-चार गिरफ़्तार हमेशा
क्यूँ-कर तू मसीहा हुआ मशहूर जहाँ में
मरते हैं तिरे हाथ से बीमार हमेशा
हंगामे नए रोज़ हुआ करते हैं बरपा
फ़ित्ने ही उठाती है वो रफ़्तार हमेशा
ऐ 'रिन्द' जुनूँ में भी न सहरा को गए हम
खाया किए पत्थर सर-ए-बाज़ार हमेशा
ग़ज़ल
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
रिन्द लखनवी