चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
बढ़ाने पर पतंग आए तो चर्ख़ी खोल दी हम ने
पड़ा रहने दो अपने बोरिए पर हम फ़क़ीरों को
फटी रह जाएँगी आँखें जो मुट्ठी खोल दी हम ने
कहाँ तक बोझ बैसाखी का सारी ज़िंदगी ढोते
उतरते ही कुएँ में आज रस्सी खोल दी हम ने
फ़रिश्तो तुम कहाँ तक नामा-ए-आमाल देखोगे
चलो ये नेकियाँ गिन लो कि गठरी खोल दी हम ने
तुम्हारा नाम आया और हम तकने लगे रस्ता
तुम्हारी याद आई और खिड़की खोल दी हम ने
पुराने हो चले थे ज़ख़्म सारे आरज़ूओं के
कहो चारागरों से आज पट्टी खोल दी हम ने
तुम्हारे दुख उठाए इस लिए फिरते हैं मुद्दत से
तुम्हारे नाम आई थी जो चिट्ठी खोल दी हम ने
ग़ज़ल
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
मुनव्वर राना