चला जाता है कारवान-ए-नफ़स
न बाँग-ए-दरा है न सौत-ए-जरस
बरस कितने गुज़रे ये कहते हुए
कि कुछ काम कर लेंगे अब के बरस
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
रही जाती है दिल की दिल में हवस
वो हसरत-ज़दा सैद मैं ही तो हूँ
है परवाज़ जिस की दुरून-ए-हवस
सितम हैं ये 'वहशत' तिरी ग़फ़लतें
तुझे काश होता शुमार-ए-नफ़स
ग़ज़ल
चला जाता है कारवान-ए-नफ़स
वहशत रज़ा अली कलकत्वी