चारों ओर अब फूल ही फूल हैं क्या गिनते हो दाग़ों को
हो तौफ़ीक़ तो दिल से लगाओ इन नौ-रुस्ता बाग़ों को
जलते सहरा की मौजों पर गिरते-पड़ते रह-रव हैं
चश्मा-ए-आज़ादी के जो अब तक ढूँढ रहे हैं सुरागों को
बाद-ए-हवादिस के शहपर ख़ुद उन को राह दिखाते हैं
वक़्त के धारे पर छोड़ा है हम ने ऐसे चराग़ों को
कुंज-ए-क़फ़स गो कुंज-ए-क़फ़स है लेकिन अब के बहाराँ में
हम ने महकता पाया जोश-ए-तसव्वुर-ए-गुल से दिमाग़ों को
सुब्ह-ए-रोज़-ए-आदम-ए-नौ है धूम मची है घर घर में
साथियो उट्ठो सुबूही से छलकाएँ भर के अयाग़ों को
ग़ज़ल
चारों ओर अब फूल ही फूल हैं क्या गिनते हो दाग़ों को
सफ़दर मीर