चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ
किसी आसेब का साया है यहाँ
कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ
शहर का शहर बना गोरिस्ताँ
एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ
जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ
ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर
जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ
कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब
न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ
उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़
कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ
शाइ'र-ए-क़ौम पे बन आई है
किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ
लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई
और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां
सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर
पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ
ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ'र
यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ
किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें
इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ
ग़ज़ल
चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ
फ़हमीदा रियाज़