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चाँद की कश्ती सजी है और मैं | शाही शायरी
chand ki kashti saji hai aur main

ग़ज़ल

चाँद की कश्ती सजी है और मैं

नुसरत ग्वालियारी

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चाँद की कश्ती सजी है और मैं
झील है इक जल-परी है और मैं

लौ दिए की सिसकियाँ लेती हुई
टिमटिमाती रौशनी है और मैं

धूप क़रनों की मसाफ़त से निढाल
तेज़ लम्हों की नदी है और मैं

गोश-बर-आवाज़ हैं दीवार-ओ-दर
बे-वज़ाहत नग़्मगी है और मैं

फिर उसी आवाज़ का मौहूम अक्स
फिर वही हर्फ़-ए-ख़फ़ी है और मैं

इल्म का सहरा है ता-हद्द-ए-नज़र
इक मुसलसल तिश्नगी है और मैं

फिर वही बे-नाम पागल ख़्वाहिशें
फिर वही अंधी गली है और मैं

बिखरे बिखरे ख़्वाब हैं मेरे लिए
रेज़ा रेज़ा ज़िंदगी है और मैं

नींद से बोझल हैं पलकें रात की
इक अधूरी डाइरी है और मैं