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चाँद का रक़्स सितारों का फ़ुसूँ माँगती है | शाही शायरी
chand ka raqs sitaron ka fusun mangti hai

ग़ज़ल

चाँद का रक़्स सितारों का फ़ुसूँ माँगती है

अबु मोहम्मद सहर

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चाँद का रक़्स सितारों का फ़ुसूँ माँगती है
ज़िंदगी फिर कोई अंदाज़-ए-जुनूँ माँगती है

मुद्दतें गुज़रीं कि यख़-बस्ता हुए क़ल्ब-ओ-जिगर
ग़ैरत-ए-इश्क़ मगर सोज़-ए-दरूँ माँगती है

फ़ैज़-ए-मौसम था परिंदे हुए आज़ाद मगर
ख़ू-ए-सय्याद वही सैद-ए-ज़बूँ माँगती है

फ़स्ल-ए-गुल के लिए क्या जान पे खेले कोई
अब तो हर मौज-ए-हवा तोहफ़ा-ए-ख़ूँ माँगती है

कुछ तो ऐ यूरिश-ए-आलाम-ओ-हवादिस दम ले
गर्दिश-ए-वक़्त भी थोड़ा सा सकूँ माँगती है

ख़ूबी-ए-फ़न नहीं पर्वर्दा-ए-आवुर्द 'सहर'
रूह-ए-तख़्लीक़ दम-ए-कुन-फ़-यकूँ माँगती है