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चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा | शाही शायरी
chand hi nikla na baadal hi chhama-chham barsa

ग़ज़ल

चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा

ज़िया जालंधरी

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चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा
रात दिल पर ग़म-ए-दिल सूरत-ए-शबनम बरसा

जलती जाती हैं जड़ें सूखते जाते हैं शजर
हो जो तौफ़ीक़ तो आँसू ही कोई दम बरसा

मेरे अरमान थे बरसात के बादल की तरह
ग़ुंचे शाकी हैं कि ये अब्र बहुत कम बरसा

पै-ब-पै आए सजल तारों के मानिंद ख़याल
मेरी तन्हाई पे शब हुस्न झमाझम बरसा

कितने ना-पैद उजालों से किया है आबाद
वो अंधेरा जो मिरी आँखों पे पैहम बरसा

सर्द झोंकों ने कही सूनी रुतों से क्या बात
किन तमन्नाओं का ख़ूँ शाख़ों से थम थम बरसा

क़र्या क़र्या थी 'ज़िया' हसरत-ए-आबादी-ए-दिल
क़र्या क़र्या वही वीरानी का आलम बरसा