चाक करते हैं गरेबाँ इस फ़रावानी से हम
रोज़ ख़िलअत पाते हैं दरबार-ए-उर्यानी से हम
मुंतख़ब करते हैं मैदान-ए-शिकस्त अपने लिए
ख़ाक पर गिरते हैं लेकिन औज-ए-सुल्तानी से हम
हम ज़मीन-ए-क़त्ल-गह पर चलते हैं सीने के बल
जादा-ए-शमशीर सर करते हैं पेशानी से हम
हाँ मियाँ दुनिया की चम-ख़म ख़ूब है अपनी जगह
इक ज़रा घबरा गए हैं दिल की वीरानी से हम
ज़ोफ़ है हद से ज़ियादा लेकिन इस के बावजूद
ज़िंदगी से हाथ उठा सकते हैं आसानी से हम
दिल से बाहर आज तक हम ने क़दम रक्खा नहीं
देखने में ज़ाहिरा लगते हैं सैलानी से हम
दौलत-ए-दुनिया कहाँ रक्खें जगह भी हो कहीं
भर चुके हैं अपना घर बे-साज़-ओ-सामानी से हम
ज़र्रा ज़र्रा जगमगाती जल्वा-बारानी-ए-दोस्त
देखते हैं रौज़न-ए-दीवार हैरानी से हम
अक़्ल वालो ख़ैर जाने दो नहीं समझोगे तुम
जिस जगह पहुँचे हैं राह-ए-चाक-दामानी से हम
कारोबार-ए-ज़िंदगी से जी चुराते हैं सभी
जैसे दरवेशी से तुम मसलन जहाँबानी से हम
ग़ज़ल
चाक करते हैं गरेबाँ इस फ़रावानी से हम
अहमद जावेद