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चाहत की लौ को मद्धम कर देता है | शाही शायरी
chahat ki lau ko maddham kar deta hai

ग़ज़ल

चाहत की लौ को मद्धम कर देता है

शकील जमाली

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चाहत की लौ को मद्धम कर देता है
डर जाता है मिलना कम कर देता है

जल्दी अच्छे हो जाने का जज़्बा भी
ज़ख़्मों को वक़्फ़-ए-मरहम कर देता है

मौत तो फिर भी अपने वक़्त पे आती है
मौत का आधा काम तो ग़म कर देता है

सौ ग़ज़लें होती हैं और मर जाती हैं
इक मिस्रा तारीख़ रक़म कर देता है

दिल में ऐसे दुख ने डेरा डाला है
ऐसा दुख जो आँखें नम कर देता है

सब्र का दामन हाथों से मत जाने दो
सब्र दिलों की वहशत कम कर देता है