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चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो | शाही शायरी
chaha bahut ki ishq ki phir ibtida na ho

ग़ज़ल

चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो

बाक़र मेहदी

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चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो
रुस्वाइयों की अपनी कहीं इंतिहा न हो

जोश-ए-वफ़ा का नाम जुनूँ रख दिया गया
ऐ दर्द आज ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से सिवा न हो

ये ग़म नहीं कि तेरा करम हम पे क्यूँ नहीं
ये तो सितम है तेरा कहीं सामना न हो

कहते हैं एक शख़्स की ख़ातिर जिए तो क्या
अच्छा यूँही सही तो कोई आसरा न हो

ये इश्क़ हद्द-ए-ग़म से गुज़र कर भी राज़ है
इस कशमकश में हम सा कोई मुब्तिला न हो

इस शहर में है कौन हमारा तिरे सिवा
ये क्या कि तू भी अपना कभी हम-नवा न हो