चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो
रुस्वाइयों की अपनी कहीं इंतिहा न हो
जोश-ए-वफ़ा का नाम जुनूँ रख दिया गया
ऐ दर्द आज ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से सिवा न हो
ये ग़म नहीं कि तेरा करम हम पे क्यूँ नहीं
ये तो सितम है तेरा कहीं सामना न हो
कहते हैं एक शख़्स की ख़ातिर जिए तो क्या
अच्छा यूँही सही तो कोई आसरा न हो
ये इश्क़ हद्द-ए-ग़म से गुज़र कर भी राज़ है
इस कशमकश में हम सा कोई मुब्तिला न हो
इस शहर में है कौन हमारा तिरे सिवा
ये क्या कि तू भी अपना कभी हम-नवा न हो
ग़ज़ल
चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो
बाक़र मेहदी