बुज़ुर्गो, नासेहो, फ़रमाँ-रवाओ
हमें तो मय-कदे तक छोड़ आओ
अमीराना भी इस कूचे में आओ
लब-ओ-रुख़्सार-ओ-मिज़्गाँ के गदाओ
उभरती जा रही है शम्अ की लौ
बड़ी नादान हो ठंडी हवाओ
हज़ारों राज़ उर्यां हो रहे हैं
गिराओ आँख पर चिलमन गिराओ
वो मुझ से और मैं उन से ख़फ़ा हूँ
नदीमो आ के दोनों को मनाओ
न जाने हम कहाँ गुम हो चुके हैं
जो मुमकिन हो तो हम को ढूँड लाओ
ग़ज़ल
बुज़ुर्गो, नासेहो, फ़रमाँ-रवाओ
मुस्तफ़ा ज़ैदी