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बुत-परस्ती के सनम-ख़ाने का आसार न तोड़ | शाही शायरी
but-parasti ke sanam-KHane ka aasar na toD

ग़ज़ल

बुत-परस्ती के सनम-ख़ाने का आसार न तोड़

साहिर देहल्वी

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बुत-परस्ती के सनम-ख़ाने का आसार न तोड़
काबा-ए-दिल मिरा मस्त-ए-मय-ए-पिंदार न तोड़

अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब ऐ वाइ'ज़
है ये पैमान-ए-वफ़ा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न तोड़

मोहतसिब संग पे तू शीशा-ए-मय को न पटक
दिल-ए-रिंदान-ए-मय-आशाम को ज़िन्हार न तोड़

रहम कर रहम कि ये चश्म-ए-चमन का है चराग़
जल्वा-ए-गुल से है ज़ीनत उसे ऐ यार न तोड़

तौबा करनी तुझे वाजिब ही न थी ऐ 'साहिर'
वो जो होना था हुआ अब उसे बेकार न तोड़