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बुत की मानिंद न अपने को बनाए रखना | शाही शायरी
but ki manind na apne ko banae rakhna

ग़ज़ल

बुत की मानिंद न अपने को बनाए रखना

मीनू बख़्शी

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बुत की मानिंद न अपने को बनाए रखना
जिस जगह रहना वहाँ धूम मचाए रखना

ख़ुद को दरिया में न क़तरों सा मिलाए रखना
मुनफ़रिद होने का एहसास दिलाए रखना

काम फ़र्ज़ाना-ए-दुनिया का नहीं ऐ नासेह
परचम-ए-इश्क़ ज़माने में उठाए रखना

चश्म-ए-मख़्लूक़ है मीज़ान-ए-रज़ा-ए-मौला
चश्म-ए-मख़्लूक़ में ख़ुद को न गिराए रखना

तुझ को देना हो अगर ज़ुल्मत-ए-हिज्राँ को शिकस्त
शम्अ' बुझ जाए मगर दिल न बुझाए रखना

क़ल्ब-ए-ख़ुद्दार की ख़ातिर तो है ज़िल्लत का सबब
लौ सदा उस बुत-ए-काफ़िर से लगाए रखना

जिस से मिलती हो हर इक लहज़ा ग़ज़ल की ख़ुश्बू
सेहन-ए-एहसास में वो फूल खिलाए रखना

मेरे दिल को तो किसी हाल में मंज़ूर नहीं
फ़िक्र-ए-दुनिया में तिरी याद भुलाए रखना