बुत-गर है न कोई बुत-शिकन है
सब वहम-ओ-गुमान-ए-बरहमन है
ये कौन शरीक-ए-अंजुमन है
आँखों को भी हसरत-ए-सुख़न है
आसाँ तो है जू-ए-शीर लेकिन
कुछ और ही अज़्म-ए-कोहकन है
ऐ आतिश-ए-दिल अदब है लाज़िम
मुझ में भी वो बू-ए-पैरहन है
वीरान सी हो चली हैं राहें
रहबर है न कोई राहज़न है
ए'जाज़-ए-ग़ज़ल कि ख़ुद 'रविश' से
वो जान-ए-कलाम हम-सुख़न है
ग़ज़ल
बुत-गर है न कोई बुत-शिकन है
रविश सिद्दीक़ी