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बुत-गर है न कोई बुत-शिकन है | शाही शायरी
but-gar hai na koi but-shikan hai

ग़ज़ल

बुत-गर है न कोई बुत-शिकन है

रविश सिद्दीक़ी

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बुत-गर है न कोई बुत-शिकन है
सब वहम-ओ-गुमान-ए-बरहमन है

ये कौन शरीक-ए-अंजुमन है
आँखों को भी हसरत-ए-सुख़न है

आसाँ तो है जू-ए-शीर लेकिन
कुछ और ही अज़्म-ए-कोहकन है

ऐ आतिश-ए-दिल अदब है लाज़िम
मुझ में भी वो बू-ए-पैरहन है

वीरान सी हो चली हैं राहें
रहबर है न कोई राहज़न है

ए'जाज़-ए-ग़ज़ल कि ख़ुद 'रविश' से
वो जान-ए-कलाम हम-सुख़न है