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बुत-ए-बे-दर्द का ग़म मोनिस-ए-हिज्राँ निकला | शाही शायरी
but-e-be-dard ka gham monis-e-hijran nikla

ग़ज़ल

बुत-ए-बे-दर्द का ग़म मोनिस-ए-हिज्राँ निकला

हसरत मोहानी

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बुत-ए-बे-दर्द का ग़म मोनिस-ए-हिज्राँ निकला
दर्द जाना था जिसे हम ने वो दरमाँ निकला

आँख जब बंद हुई तब खुलीं आँखें अपनी
बज़्म-ए-याराँ जिसे समझे थे वो ज़िंदाँ निकला

हसरत-ओ-यास का अम्बोह फ़ुग़ाँ की कसरत
मैं तिरी बज़्म से क्या बा-सर-ओ-सामाँ निकला

ख़ून हो कर तो ये दिल आँख से बरसों टपका
न कोई पर दिल-ए-नाकाम का अरमाँ निकला

आइना पैकर-ए-तस्वीर निगाह-ए-मुश्ताक़
जिसे देखा तिरी महफ़िल में वो हैराँ निकला

मुझ को हैरत है हुआ क्या दम-ए-रुख़्सत हमदम
जान निकली मिरे पहलू से कि जानाँ निकला

ख़ूब दोज़ख़ की मुसीबत से बचे हम 'हसरत'
इस का दारोग़ा वही यार का दरबाँ निकला