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बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा | शाही शायरी
bulbul wo gul hai KHwab mein tu ga ke mat jaga

ग़ज़ल

बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा

वलीउल्लाह मुहिब

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बुलबुल वो गुल है ख़्वाब में तू गा के मत जगा
या चुटकियों की ग़ुंचों से बजवा के गत जगा

वो गुल-एज़ार बाग़ में आवे जो रहम कर
कहते हैं गुल गुलों से करें आज रत-जगा

हमदम वो बज़ला-संज तो आते ही सो रहा
ख़ुश-तबइयों से बोल के बाहम जगत जगा

ता-सुब्ह शाम से रहे मज्लिस में दौर-ए-जाम
साक़ी हमें जगाए तो बा-कैफ़ियत जगा

काटी है बेकली से शब-ए-हिज्र-ए-गुल-रुख़ाँ
टुक आँख लग गई है सबा हम को मत जगा

है मुझ को उस की नाज़ुकी-ए-तब्अ' से लिहाज़
दूँ वर्ना आँखें पाँव से मल कर तुरत जगा

फ़रहाद-ओ-क़ैस छोड़ गए किश्वर-ए-जुनूँ
नौबत पर अपनी वाँ की दिला सल्तनत जगा