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बुलबुल को ख़ार ख़ार-ए-दबिस्ताँ है इन दिनों | शाही शायरी
bulbul ko Khaar Khaar-e-dabistan hai in dinon

ग़ज़ल

बुलबुल को ख़ार ख़ार-ए-दबिस्ताँ है इन दिनों

हैदर अली आतिश

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बुलबुल को ख़ार ख़ार-ए-दबिस्ताँ है इन दिनों
हर तिफ़्ल की बग़ल में गुलिस्ताँ है इन दिनों

ज़ुन्नार-ए-इश्क़ बुत में रग-ए-जाँ है इन दिनों
नाक़ूस-ए-बरहमन दिल-ए-नालाँ है इन दिनों

आबाद मेरा ख़ाना-ए-वीराँ है इन दिनों
सैलाब मुझ ग़रीब का मेहमाँ है इन दिनों

दामन है अपने हाथ में इक रश्क-ए-माह का
पेश-ए-नज़र हिलाल-ए-गरेबाँ है इन दिनों

बाग़-ए-जहाँ में जो है गिरफ़्तार है तिरा
आज़ाद एक सर्व-ए-गुलिस्ताँ है इन दिनों

कहते हैं हम ज़मीन में मजनूँ की अब ग़ज़ल
हर बैत अपनी ख़ाना-ए-ज़िंदाँ है इन दिनों

काफ़िर हो ऐ सनम जो ख़रीदे न तू उसे
मेहंदी के मोल ख़ून-ए-मुसलमाँ है इन दिनों

हंगामा हुस्न-ओ-इश्क़ का है गर्म आज-कल बहुत
दीवाना-ए-परी है जो इंसाँ है इन दिनों

मस्ती का उन लबों के फ़साना कहाँ नहीं
मज्लिस नहीं वो जो नहीं हैराँ है इन दिनों

सदक़े चकोर होते हैं रुख़्सार-ए-यार के
वो माह-ए-चार-दह मह-ए-ताबाँ है इन दिनों

आता है सैर-ए-बाग़ को वो गौहर-ए-मुराद
फैलाए गुल के पास जो दामाँ है इन दिनों

क़द सर्व चेहरा गुल है तो सुम्बुल हैं मू-ए-यार
घर ख़ाना बाग़ है जो वो मेहमाँ है इन दिनों

जौहर-शनास जम्अ हैं 'आतिश' है म'अरका
शमशीर है वही कि जो उर्यां है इन दिनों